Wp/mag/वेदान्त
वेदान्त के शाब्दिक अर्थ है - 'वेदके अन्त' (अथवा सार) । उपनिषद् वैदिक साहित्यके अन्तिम भाग है, एहीसे एकरा वेदान्त कहल जा है । कर्मकाण्ड आउ उपासनाके मुख्यतः वर्णन मन्त्र आउ ब्राह्मणमे है एवं ज्ञानके विवेचन उपनिषदमे पाएल जा है ।
वेदान्तके तीन शाखा जे सबसे अधिक प्रसिद्ध है, ऊ है: अद्वैत वेदान्त, विशिष्ट अद्वैत आउ द्वैत । आदि शङ्कराचार्य, रामानुज आउ मध्वाचार्यके क्रमशः ई तीनो शाखाके प्रवर्तक मानल जा है । इनकर इलावो ज्ञानयोगके अन्य शाखा है । ई सब शाखा अपन प्रवर्तकके नामसे जानल जा है जेकरामे भास्कर, वल्लभ, चैतन्य, निम्बार्क, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर आउ विज्ञान भिक्षु शामिल है ।[1] आधुनिक कालमे जे प्रमुख वेदान्ती होलन हे उनकामे रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, अरविन्द घोष, स्वामी शिवानन्द स्वामी करपात्री आउ रमण महर्षि उल्लेखनीय हथिन । ई आधुनिक विचारक अद्वैत वेदान्त शाखाके प्रतिनिधित्व करऽहथिन । दोसर वेदान्त सबके प्रवर्तको अपन विचारके भारतमे भलिभाँति प्रचारित कैलन हे ।
चारो वेदमे चार महावाक्य है । ऋग्वेदमे "प्रज्ञानं ब्रह्म" , यजुर्वेदमे "अहं ब्रह्मास्मि" सामवेदमे "तत्त्वमसि" एवं अथर्ववेदे "में अयमात्मा ब्रह्म" ई सब महावाक्य सुशोभित है । ई सब महावाक्य वेदान्त दर्शनके आधार स्तम्भ है ।[2]
'वेदान्त' के अर्थ
[edit | edit source]'वेदान्त' के शाब्दिक अर्थ है 'वेदके अन्त' । आरम्भमे उपनिषद् ला ‘वेदान्त’ शब्दके प्रयोग होलै किन्तु बादमे उपनिषदके सिद्धान्तके आधार मानके जौन विचारके विकास होलै, ओकरोला ‘वेदान्त’ शब्दके प्रयोग होवे लगलै । उपनिषदला 'वेदान्त' शब्दके प्रयोगके प्रायः तीन कारण देल जा है :-
- (1) उपनिषद् ‘वेद’के अन्तमे आवऽहै । ‘वेद’के भितरे प्रथमतः वैदिक संहिता- ऋक्, यजुः, साम एवं अथर्व आवऽहै आउ इनकर उपरान्त ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद् आवऽहै । ई साहित्यके अन्तमे होवेके चलते उपनिषद्के वेदान्त कहल जा है ।
- (2) वैदिक अध्ययनके दृष्टियोसेउपनिषदके अध्ययनके पारी अन्तमे आवऽहलै । सबसे पहिले संहिताके अध्ययन होवऽहलै । तदुपरान्त गृहस्थाश्रममे प्रवेश करे पर यज्ञादि गृहस्थोचित कर्म करेला ब्राह्मण-ग्रन्थके आवश्यकता पड़ऽहलै । वानप्रस्थ या संन्यास आश्रममे प्रवेश करे पर आरण्यकके आवश्यकता होवऽहलै, वनमे रहित लोग जीवन एवं जगत्के पहेली को सुलझावेके प्रयत्न करऽहलथिन । एही उपनिषद्के अध्ययन एवऽमननके अवस्था हलै ।
- (3) उपनिषदमे वेदके ‘अन्त’ अर्थात् वेदके विचारके परिपक्व रूप है । ई मानल जाता हलै कि वेद-वेदांग आदि सब शास्त्रके अध्ययन कर लेवहुँ पर बिन उपनिषदके शिक्षा प्राप्त कैले मनुष्यके ज्ञान पूर्ण न होवऽहलै ।
आचार्य उदयवीर शास्त्रीके अनुसार ‘वेदान्त’ पदके तात्पर्य है-
- वेदादिमे विधिपूर्वक अध्ययन, मनन एवं उपासना आदिके अन्तमे जे तत्त्व जानल जाए ऊ तत्त्वके विशेष रूपसेएहाँ निरूपण कैल गेव हो, ऊ शास्त्र को ‘वेदान्त’ कहल जा है ।
वेदान्तके साहित्य
[edit | edit source]ऊपरे कह देल गेलै हे कि ‘वेदान्त’ शब्द मूलतः उपनिषदला प्रयुक्त होवऽहलै । अलगे-अलगे संहिता सब एवं उनकर शाखासेसम्बद्ध अनेक उपनिषद् हम्मनीके प्राप्त है । जेकरामे प्रमुख एवं प्राचीन है - ईश, केन, कठ, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, श्रताश्वर आउ बृहदारण्यक । ई सब उपनिषदके दार्शनिक सिद्धान्तमे बड़ी कुछ समानता है किन्तु अनेक स्थान पर विरोधो प्रतीत होवऽहै । कालान्तरमे ई आवश्यकता अनुभव कैल गेलै कि विरोधी प्रतीत होवे वाला विचारमे समन्वय स्थापित करके सर्वसम्मत उपदेशके संकलन कैल जाये । एही आवश्यकताके पूर्तिला बादरायण व्यास ब्रह्मसूत्रके रचना कैलम जेकरा वेदान्त सूत्र, शारीरकसूत्र, शारीरकमीमांसा या उत्तरमीमांसो कहल जा है । एकरामे उपनिषदके सिद्धान्तके अत्यन्त संक्षेप मे, सूत्र रूपमे संकलित कैल गेलै हे ।
अत्यधिक संक्षेप होबेके चलते सूत्रमे अपने आपमे अस्पष्टता है आउ उनका बिन भाष्य या टीकाके बुझल सम्भव न है । एहीसे अनेक भाष्यकार अपन-अपन भाष्य द्वारा इनकर अभिप्रायके स्पष्ट करेके प्रयत्न कैलन किन्तु ई स्पष्टीकरणमे उनकर अपन-अपन दृष्टिकोण हलै आउ एहीसेओकरामे पर्याप्त मतभेद है । प्रत्येक ई सिद्ध करेके चेष्टा कैलन कि उनकरे भाष्य ब्रह्मसूत्रके वास्तविक अर्थके स्पष्टीकरण करऽहै । फलतः सब भाष्यकार एक-एक वेदान्त सम्प्रदायके प्रवर्तक बन गेलन । इनकामे प्रमुख है शङ्करके अद्वैतवाद, रामानुजके विशिष्टाद्वैतवाद, मध्वके द्वैतवाद, निम्बार्कके द्वैताद्वैतवाद एवं वल्लभके शुद्धाद्वैतवाद । बलदेव (अचिन्त्यभेदाभेदवाद) के गोविन्दभाष्य, ई सब भाष्यके अनन्तर ई सब भाष्य पर टीका एवं टीका पर टीकाके क्रम चललै । अपन-अपन सम्प्रदायके मतके पुष्ट करेला अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थोके रचना होलै, जेकरासेवेदान्तके साहित्य अत्यन्त विशाल हो गेलै ।
ऐतिहासिक रूपसेकौनो गुरुला आचार्य बने / समझल जाएला वेदान्तके पुस्तक पर टीका या भाष्य लिखे पड़ऽहै । ई सब पुस्तकमे तीन महत्वपूर्ण पुस्तक शामिल है उपनिषद, भगवद गीता आउ ब्रह्मसूत्र, जिनका प्रस्थानत्रयी कहल जा है । तदनुसार आदि शङ्कराचार्य, रामानुज आउ मध्वाचार्य तीनो ई तीन महत्वपूर्ण पुस्तक पर विशिष्ट रचना देलन हे । तीनो ग्रन्थमे प्रगट विचारके ढेर प्रकारसेव्याख्यान कैल जा सकऽहै । एही चलते ब्रह्म, जीव एवं जगत्के सम्बन्धमे अनेक मत उपस्थित कैल गेल आउ ई प्रकार वेदान्तके अनेक रूपके निर्माण होलै हल ।
| सम्प्रदायके नाम | प्रवर्तक | काल (ई०) | भाष्यके नाम |
|---|---|---|---|
| निर्विशेषाद्वैत | शङ्कराचार्य | ७८८-८२० | शारीरिक भाष्य |
| भेदाभेद | भास्कराचार्य | ८५० | भास्कर भाष्य |
| विशिष्टाद्वैत | श्रीरामानुजाचार्य | ११४० | श्रीभाष्य |
| द्वैत | माध्वाचार्य-आनन्दतीर्थ | १२८८ | पूर्णप्रज्ञ भाष्य |
| द्वैताद्वैत | निम्बार्क | १२५० | वेदान्तपरिजात भाष्य |
| शैवविशिष्टाद्वैत | श्रीकण्ठ | १२७० | शैवभाष्य |
| वीरशैव विशिष्टाद्वैत | श्रीपति | १४०० | श्रीकरभाष्य |
| शुद्धाद्वैत | वल्लभाचार्य | १४७८-१५४४ | अणुभाष्य |
| अविभागाद्वैत | विज्ञानभिक्षु | १६०० | विज्ञानामृत |
| अचिन्त्यभेदाभेद | बलदेव | १७२५ | गोविन्दभाष्य |
अद्वैत वेदान्त
[edit | edit source]गौड़पाद (300 ई.) आउ उनकर अनुवर्ती आदि शङ्कराचार्य (700 ई.) ब्रह्मके प्रधान मानकर जीव आउ जगत्के ओकरासेअभिन्न मानऽहथिन । उनकर अनुसार तत्वके उत्पत्ति आउ विनाशसेरहित होवेके चाही । नाशवान् जगत तत्वशून्य है, जीवो जैसन लौकऽहै ओइसन तत्वतः न है । जाग्रत आउ स्वप्नावस्थामे जीव जगत्मे रहऽहै परन्तु सुषुप्तिमे जीव प्रपंच ज्ञानशून्य चेतनावस्थामे रहऽहै । एकरासेसिद्ध होवऽहै कि जीवके शुद्ध रूप सुषुप्ति नियन होवेके चाही । सुषुप्ति अवस्था अनित्य है अतः एकरासेपरे तुरीयावस्थाके जीवके शुद्ध रूप मानल जा है । ई अवस्थामे नश्वर जगत्सेकौनो सम्बन्ध न होबै आउ जीवके पुनः नश्वर जगत्मे प्रवेशो न करे पड़ै । ई तुरीयावस्था अभ्याससेप्राप्त होवऽहै । ब्रह्म-जीव-जगत्मे अभेदके ज्ञान उत्पन्न होवे पर जगत् जीवमे आउ जीव ब्रह्ममे लीन हो जा है । तीनोमे वास्तविक अभेद होवहुँ पर अज्ञानके कारण जीव जगत्के अपनासेपृथक् मानऽहै । किन्तु स्वप्नसंसार नियन जाग्रत संसारो जीवके कल्पना है । भेद एतने है कि स्वप्न व्यक्तिगत कल्पनाके परिणाम है जबकि जाग्रत अनुभव-समष्टि-गत महाकल्पनाके । स्वप्नजगत्के ज्ञान होबे पर दुनोमे मिथ्यात्व सिद्ध है ।[3]
किन्तु बौद्ध नियन वेदान्तमे जीवके जगत्के अङ्ग होबेके कारण मिथ्या न मानल जाई । मिथ्यात्वके अनुभव करेवाला जीव परम सत्य है, ओकरा मिथ्या माने पर सब ज्ञानके मिथ्या माने पड़तै । किन्तु जौन रूपमे जीव संसारमे व्यवहार करऽहै ओकर ई रूप अवश्य मिथ्या है । जीवके तुरीय अवस्था भेदज्ञान शून्य शुद्ध अवस्था है । ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञानके सम्बन्ध मिथ्या सम्बन्ध है । एकरासेपरे होके जीव अपन शुद्ध चेतनावस्थाके प्राप्त होवऽहै । ई अवस्थामे भेदके लेशो न है काहेकि भेद द्वैतमे होवऽहै । एही अद्वैत अवस्थाके ब्रह्म कहल जा है । तत्व असीम होवऽहै, यदि दोसर तत्वो हो तो पहिले तत्वके सीमा हो जैतै आउ सीमित हो जाएसेऊ तत्व बुद्धिगम्य होतै जेकरामे ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञानके भेद प्रतिभासित होवे लगतै । अनुभव साक्षी है कि सब ज्ञेय वस्तु नश्वर है । अतः यदि हम्मनी तत्वके अनश्वर मानऽहियै त हम्मनी ओकरा अद्वय, अज्ञेय, शुद्ध चैतन्य मानहीं पड़तै । ऐसन तत्वके मानके जगत्के अनुभूयमान स्थितिके हम्मनी विवर्तवादके सहार व्याख्यान करे पड़तै । रस्सीमे प्रतिभासित होवेवाला सर्प नियन ई जगत् न त सत् है, न असत् है । सत् रहतै हल त एकर कहियो नाश न होतै हल, असत् रहतै हल त सुख, दुःखके अनुभव न होतै हल । अतः सत् असत्सेविलक्षण अनिवर्चनीय अवस्थे वास्तविक अवस्था हो सकऽहै । उपनिषदमे नेति कहके एही अज्ञातावस्थाके प्रतिपादन कैल गेलै हे ।
अज्ञान भाव रूप है काहे कि एकरासेवस्तुके अस्तित्वके उपलब्धि होवऽहै, ई अभाव रूप है, काहेकि एकर वास्तविक रूप कुछो न है । एही अज्ञानके जगत्के कारण मानल जा है । अज्ञानके ब्रह्मके साथे की सम्बन्ध है, एकर सही उत्तर कठिन है किन्तु ब्रह्म अपन शुद्ध निर्गुण रूपमे अज्ञान विरहित है, कौनो प्रकरासेऊ भावाभाव विलक्षण अज्ञानसेआवृत्त होके सगुण ईश्वर कहलाए लगऽहै आउ ई प्रकार सृष्टिक्रम चालू हो जा है । ईश्वरके अपन शुद्ध रूपके ज्ञान होवऽहै किन्तु जीवके अपन ब्रह्मरूपके ज्ञान प्राप्त करेला साधनाके द्वारा ब्रह्मीभूत होवे पड़ऽहै । गुरुके मुखसे'तत्वमसि'के उपदेश सुनके जीव 'अहं ब्रह्मास्मि'के अनुभव करऽहै । ऊ अवस्थामे सम्पूर्ण जगत्के आत्ममय आउ अपनामे सम्पूर्ण जगत्के देखऽहै काहे कि ऊ समय ओकर (ब्रह्म) के अतिरिक्त कौनो तत्व न होवै । एही अवस्थाके तुरीयावस्था या मोक्ष कहल जा है ।
विशिष्टाद्वैत वेदान्त
[edit | edit source]रामानुजाचार्य (११ मा शताब्दी) शङ्कर मतके विपरीत ई कहलन कि ईश्वर (ब्रह्म) स्वतन्त्र तत्व है किन्तु जीवो सत्य है, मिथ्या न । ई जीव ईश्वरके साथे सम्बद्ध है । उनकर ई सम्बन्धो अज्ञानके कारण न है, ऊ वास्तविक है । मोक्ष होवहुँ पर जीवके स्वतन्त्र सत्ता रहऽहै । भौतिक जगत् आउ जीव अलग अलग रूपसेसत्य है किन्तु ईश्वरके सत्यता इनकर सत्यतासेविलक्षण है । ब्रह्म पूर्ण है, जगत् जड़ है, जीव अज्ञान आउ दुःखसेघिरा है । ई तीनो मिलके एकाकार हो जा है काहे कि जगत् आउ जीव ब्रह्मके शरीर है आउ ब्रह्म इनकर आत्मा एवं नियन्ता है । ब्रह्मसेपृथक् इनकर अस्तित्व न है, ई ब्रह्मके सेवा करहीँला है । ई दर्शनमे अद्वैतके जगह बहुत्वके कल्पना है किन्तु ब्रह्म अनेकमे एकता स्थापित करेवाला एक तत्व है । बहुत्वसेविशिष्ट अद्वय ब्रह्मके प्रतिपादन करेके कारण एकरा विशिष्टाद्वैत कहल जा है ।
विशिष्टाद्वैत मतमे भेदरहित ज्ञान असम्भव मानल गेलै हे । एहीसे शङ्करके शुद्ध अद्वय ब्रह्म ई मतमे ग्राह्य न है । ब्रह्म सविशेष है आउ ओकर विशेषता एकरामे है कि ओकरामे सब सत् गुण विद्यामान है । अतः ब्रह्म वास्तवमे शरीरी ईश्वर है । सब वैयक्तिक आत्मा सत्य है आउ इनकेसेब्रह्मके शरीर निर्मित है । ई ब्रह्म मे, मोक्ष हाबे पर, लीन न होवै; इनकर अस्तित्व अक्षुण्ण बनल रहऽहै । ई प्रकार ब्रह्म अनेकतामे एकता स्थापित करेवाला सूत्र है । एही ब्रह्म प्रलय कालमे सूक्ष्मभूत आउ आत्मा सबके साथे कारण रूपमे स्थित रहऽहै किन्तु सृष्टिकालमे सूक्ष्म स्थूल रूप धारण कर ले है । एही कार्य ब्रह्म कहल जा है । अनन्त ज्ञान आउ आनन्दसेयुक्त ब्रह्मके नारायण कहल जा है जे लक्ष्मी (शक्ति) के साथे बैकुण्ठमे निवास करऽहथिन । भक्तिके द्वारा ई नारायणके समीप पहुँचल जा सकऽहै । सर्वोत्तम भक्ति नारायणके प्रसादसेप्राप्त होवऽहै आउ ई भगवद्ज्ञानमय है । भक्ति मार्गमे जाति-वर्ण-गत भेदके स्थान न है । सबला भगवत्प्राप्तिके ई राजमार्ग है ।
द्वैत वैदान्त
[edit | edit source]मध्व (११९७ ई.) द्वैत वेदान्तके प्रचार कैलन जेकरामे पाँच भेदके आधार मानल जा है- जीव ईश्वर, जीव जीव, जीव जगत्, ईश्वर जगत्, जगत् जगत् । एकरामे भेद स्वतः सिद्ध है । भेद बिन वस्तुके स्थिति असम्भव है । जगत् आउ जीव ईश्वरसेपृथक् है किन्तु ईश्वर द्वारा नियन्त्रित है । सगुण ईश्वर जगत्के स्रष्टा, पालक आउ संहारक है । भक्तिसेप्रसन्न होवेवाले ईश्वरके इशारे पर सृष्टिके खेल चलऽहै । यद्यपि जीव स्वभावतः ज्ञानमय आउ आनन्दमय है किन्तु शरीर, मन आदिके संसर्गसेएकरा दुःख भोगे पड़ऽहै । ई संसर्ग कर्मके परिणामस्वरूप होव है । जीव ईश्वरनियन्त्रित होवहुं पर कर्ता आउ फलभोक्ता है । ईश्वरमे नित्य प्रेमे भक्ति है जेकरासेजीव मुक्त होके, ईश्वरके समीप स्थित होके, आनन्दभोग करऽहै । भौतिक जगत् ईश्वरके अधीन है आउ ईश्वरेके इच्छासेसृष्टि आउ प्रलयमे ई क्रमशः स्थूल आउ सूक्ष्म अवस्थामे स्थित होवऽहै । रामानुज नियन मध्व जीव आउ जगत्के ब्रह्मके शरीर न मानथिन । ई स्वतःस्थित तत्व है । ओकरामे परस्पर भेद वास्तविक है । ईश्वर केवल एकर नियन्त्रण करऽहथिन । ई दर्शनमे ब्रह्म जगत्के निमित्त कारण है, प्रकृति (भौतिक तत्व) उपादान कारण है ।
द्वैताद्वैत वेदान्त
[edit | edit source]निम्बार्काचार्य स्वाभाविक द्वैताद्वैत दार्शनिक सिद्धान्तके प्रचार कैलन जेकरामे जगत् (सृष्टि), जीव (आत्मा) आउ ईश्वर (परमात्मा) के बीच द्वैत-अद्वैतके स्वाभाविक सम्बन्ध होवऽहै ।[1]
निम्बार्काचार्य ब्रह्म ज्ञानके कारण एकमात्र शास्त्रके मानलन हे । सम्पूर्ण धर्मके मूल वेद है । वेद विपरीत स्मृति सब अमान्य है । जने श्रुतिमे परस्पर द्वैधो (भिन्न रूपत्व) आवऽहो ओहाँ श्रुति रूप होवेसे दुनहीँ धर्म है । कौनो एकके उपादेय आउ अन्यके हेय न कहल जा सकत । तुल्य बल होवेसेसब श्रुति प्रधान है । एही तथ्यके ध्यानमे रखैत भिन्न रूप श्रुतियोके समन्वय करके निम्बार्क दर्शन स्वाभाविक भेदाभेद सम्बन्धके स्वीकृत कैलकै हे । एकरामे समन्वयात्मक दृष्टि होवेसेभिन्न रूप श्रुतियोके परस्पर कौनो विरोध न होवै । अतएव निम्बार्क दर्शनके ‘अविरोध मत’के नामोसेअभिहित कैल जा है ।
श्रुति सबमे कुछ भेदके बोध कराबऽहै त कुछ अभेदके निर्देश दे है । यथा-
- ‘पराऽय शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविक ज्ञान बल-क्रिया च’ (श्वेताश्वतर उपनिषद ६/८)
- ‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वेताश्वतर उपनिषद ३/१)
- ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति’ (तैत्तिरीय उपनिषद ३/१/१) ।
- ‘नित्यो नित्यानां चेतश्नचेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् (कठ उपनिषद ५/१३)
- 'अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।’ (भगवद गीता १०/८) इत्यादि
श्रुति सब ब्रह्म आउ जगतके भेदके प्रतिपादन करऽहै ।
- ‘सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छान्दोग्य उपनिषद ६/२/१)
- 'आत्मा वा इदमेकमासीत्’ (तैत्तिरीय उपनिषद २/१)
- 'तत्त्वमसि’ (छान्दोग्य उपनिषद १४/३)
- ‘अयमात्मा ब्रह्म’ (बृहदारण्यक उपनिषद २/५/१६)
- 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१) :'मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव’ (भगवद गीता ७/७)
इत्यादि अभेदके बोध कराबऽहै ।
ई प्रकार भेद आउ अभेद दुनो विरुद्ध पदार्थके निर्देश करे वाला श्रुति सबमेसेकौनो एक प्रकारके श्रुतिके उपादेय अथवा प्रधान कही त दोसरके हेय या गौण कहे पड़तै । काहे कि वेद सर्वांशतया प्रमाण है । श्रुति स्मृति सबके निर्णय है । अतः तुल्य होवेसेभेद आउ अभेद दुनहोके प्रधान माने पड़तै, व्यावहारिक दृष्टिसेई सम्भव नै । भेद अभेद न हो सकतै आउ अभेदके भेद न कह सकियै । ऐसन स्थितिमे कौनो ऐसन मार्ग निकाले पड़तै कि दुनोमे विरोध न होबे आउ समन्वय हो जाए ।
श्रीनिम्बार्काचार्यपाद उक्त समस्याके समाधान करके ऐसने अविरोधी समन्वयात्मक मार्गके उपदेश कैलन हे ।
आपश्रीके कहना है– ‘ब्रह्म जगत्के उपादान कारण है । उपादान अपन कार्यसेअभिन्न होवऽहै । स्वयं मट्टिये मटका बन जा है । ओकर बिन मटकाके कौनो सत्ता नै । कार्य अपन कारणमे अति सूक्ष्म रूपसेरहऽहै । ऊ समय नाम रूपके विभाग न होवेके कारण कार्यके पृथक् रूपसेग्रहण न होवै पर अपन कारणमे ओकर सत्ता अवश्य रहऽहै । ई प्रकार कार्य आउ कारणके ऐक्यावस्थेके अभेद कहल जा है ।’
‘सदेव सौम्येदमग्र आसीत् ’ इत्यादि श्रुति सबके एही अभिप्राय है । एहीसेसत् ख्यातिके उपपत्ति होवऽहै । सद्रूप होवेसेई अभेद स्वाभाविक है ।
दृश्यमान जगत् ब्रह्मेके परिणाम है । ऊ दूधसेदही नियन नै है । दूध, दही बनके अपन दुग्धत्व (दूधपन) के जौन प्रकार समाप्त कर दे है, ओइसे ब्रह्म जगत्के रूपमे परिणत होके अपन स्वरूपके समाप्त नै करै, अपितु मकड़ीके झोलके समान अपन शक्तिके विक्षेप करके जगत्के सृष्टि करऽहै । एही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है ।
- यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः।
- स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्॥ -- (श्वे० ६/१०)
- यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् (तै. २/६)
इत्यादि श्रुति सब एकरामे प्रमाण है ।
ब्रह्मे प्राणीके अपन-अपन कैल कर्मके फल भोगतऽहै, अतः जगत्के निमित्त कारण होवेसेब्रह्म आउ जगत्के भेदो सिद्ध होवऽहै, जे कि अभेदके समान स्वाभाविके है ।
शुद्धाद्वैत वेदान्त
[edit | edit source]वल्लभ (१४७९ ई) के ई मतमे ब्रह्म स्वतन्त्र तत्व है । सच्चिदानन्द श्रीकृष्णे ब्रह्म हथिन आअ जीव एवं जगत् उनकर अंश है । ओही अणोरणीयान् एवं महतो महीयान् हथिन । ऊ एको हथिन, बड़ियो मनी हथिन । ओही अपन इच्छासेअपना आपके जीव आउ जगत्के नाना रूपमे प्रकट करऽहथिन । माया उनकर शक्ति है जेकर सहायतासेऊ एकसेअनेक होवऽहथिन । परन्तु अनेक मिथ्या नै है । श्रीकृष्णसेजीव-जगत्के स्वभावतः उत्पत्ति होवऽहै । ई उत्पत्तिसेश्रीकृष्णमे कौनो विकार नै उत्पन्न होबै । जीव-जगत् एवं ईश्वरके सम्बन्ध चिनगारी आगके सम्बन्ध है । ईश्वरके प्रति स्नेह भक्ति है । सांसारिक वस्तु सबसेवैराग्य लेके ईश्वरमे राग लगावल जीवके कर्तव्य है । ईश्वरेके अनुग्रहसेई भक्ति प्राप्य है, भक्त होएल जीवके अपन वशमे नै है । ईश्वर जखनी प्रसन्न हो जा हथिन त जीवके (अंश) अपन भीतरे ले ले हथिन या अपना भिरु नित्यसुखके उपभोग करेला रख ले हथिन । ई भक्तिमार्गके पुष्टिमार्गो कहल जा है ।
अचिन्त्य भेदाभेद वेदान्त
[edit | edit source]महाप्रभु चैतन्य (१४८५-१५३३ ई) के ई सम्प्रदायमे अनन्त गुणनिधान, सच्चिदानन्द श्रीकृष्ण परब्रह्म मानल गेलन हे । ब्रह्म भेदातीत है । किन्तु अपन शक्तिसे ऊ जीव आउ जगत्के रूपमे आविर्भूत होवऽहै । ई ब्रह्मसे भिन्न आउ अभिन्न है । अपनहीँमे ऊ निमित्त कारण है किन्तु शक्तिसे सम्पर्क होवेके कारण ऊ उपादान कारणो है । ओकर तटस्थशक्तिसेजीवके आउ मायाशक्तिसेजगत्के निर्माण होवऽहै । जीव अनन्त आउ अणु रूप है । ई सूर्यके किरण नियन ईश्वर पर निर्भर है । संसार ओकरे प्रकाश है अतः मिथ्या नै है । मोक्षमे जीवके अज्ञान नष्ट होवऽहै पर संसार बनल रहऽहै । सब अभिलाषाके छोड़के कृष्णके अनुसेवने भक्ति है । वेदशास्त्रानुमोदित मार्गसेईश्वरभक्तिके अनन्तर जखनी जीव ईश्वरके रङ्गमे रङ्ग जा है तखनि वास्तविक भक्ति होवऽहै जेकरा रुचि या रागानुगा भक्ति कहल जा है । राधाके भक्ति सर्वोत्कृष्ट है । वृन्दावन धाममे सर्वदा कृष्णके आनन्दपूर्ण प्रेम प्राप्त कैले मोक्ष है ।
अक्षरपुरुषोत्तम दर्शन
[edit | edit source]स्वामिनारायण (१७८१ – १८३० ई.) प्रस्थानत्रयीके आधार लेके ई अक्षरपुरुषोत्तम तत्त्वदर्शनके उद्गाटन कैलन हे । एकरामे पाँच अनादि तत्त्वके स्वीकार कैल गेलै हे - जीव, ईश्वर, माया, अक्षरब्रह्म आउ परब्रह्म । एकरामेसेअक्षरब्रह्म आउ परब्रह्म ई दुनो तत्त्व नित्य मायासे पर चैतन्य तत्त्व है । जीव एवं ईश्वर मायासे बद्ध है । जीव एवं ईश्वर द्वारा अक्षरब्रह्मस्वरूप गुरुके सांन्निध्यमे साधना करेपर मुक्ति होवऽहै । ई दर्शनमे भगवान् स्वामिनारायणजीके परब्रह्म मानल गेलै हे आउ उनकर धाम अक्षरधाम मानल गेलै हे । २१मा शताब्दीमे महामहोपाध्याय साधु भद्रेशदासजी भगवान् स्वामिनारायण प्रबोधित अक्षरपुरुषोत्तम दर्शनके प्रतिपादन करैत प्रस्थानत्रयी पर प्रामाणिक भाष्य सबके रचना कैलन हे । ई सब भाष्यके प्रामाणिकता एवं ई दर्शनके नूतनता, मौलिकताके काशी आउ तिरुपति समेत भारतवर्षके अनेक मूर्धन्य विद्वान सब समर्थन देलन हे ।[4][5] अतः समस्त भारतमे ई दर्शनके सप्तम वेदान्त दर्शनके रूपमे सब कोई स्वीकृत कैलक हे ।
पश्चिमी विचारक पर प्रभाव
[edit | edit source]उपनिषदके पहिला अनुभाग, १८०१ आउ १८०२मे दु भागमे प्रकाशित होलै, ई प्रकार प्रकाशित होलै, आउ एकर महत्वपूर्ण प्रभाव आर्थर शोपेनहॉवर पर पड़लै, जे ओकरा अपन जीवनके सान्त्वना कहलन । ऊ अपन दर्शनके बीच स्पष्ट समानता खीँचलन, जैसेकि ऊ "द वर्ल्ड अज विल एण्ड रेप्रेजेण्टेशन"मे व्यक्त कैल गेल आउ वेदान्त दर्शनके सर विलियम जोन्सके काममे वर्णित कैल गेल वेदान्त दर्शनके बीचे ।[6] मैक्स मुलर वेदान्त आउ स्पिनोजाके सिस्टमके बीचे मिलित-जुलित विशेषताके नोट कैलन:[7]
- "वेदान्तमे जैसे ब्रह्मन, जैसन कि उपनिषद सबमे धारण कैल गेल है आउ शङ्कराचार्य द्वारा परिभाषित कैल गेलै हे, ओइसने स्पिनोजाके सब्स्टेण्टिया है ।"
सन्दर्भ ग्रन्थ
[edit | edit source]- 1 2 राधाकृष्णन्. इंडियन फिलासफी, भाग 1-2 (PDF).
- ↑ "महावाक्य तात्पर्य विचार" (PDF).
- ↑ दासगुप्त. हिस्टरी ऑव इंडियन फलासफी, भाग 1.
- ↑ "'Swaminarayansiddhantasudha' Acclamation by the Śrī Kāśī Vidvat Parisad". BAPS. अभिगमन तिथि 2022-05-04.
- ↑ "South Indian Scholars Recognize the Akshar-Purushottam Darshan as a Distinct Vedic Sanatan Darshan". BAPS. अभिगमन तिथि 2022-05-04.
- ↑ App, Urs (2014-09-09). Schopenhauer's Compass. UniversityMedia. आई॰ऍस॰बी॰एन॰ 978-3-906000-03-9.
- ↑ Muller, F. Max (2010). Three Lectures on the Vedanta Philosophy. Kessinger Publishing. आई॰ऍस॰बी॰एन॰ 978-1-169-72726-7.
इहो देखथिन
[edit | edit source]- वेदान्तसूत्र - वादरायणकृत सूत्र ग्रन्थ जेकरा ब्रह्मसूत्रो कहल जा है ।
- वेदाङ्ग - शिक्षा, कल्प, व्याकरण आदि वेदके छौ अङ्ग
- शास्त्र (भारतीय दर्शन)
- धर्म दर्शन
- उपनिषद्
- भगवद्गीता
- गौडपादकारिका
- ब्रह्मसूत्र